कभी
पुछा
है
झरनो
से,
कैसे
वोह
नदियां
बन
जाती
हैं?
कैसे
परबत
को
चीर
देती
हैं?
कैसे
वोह
किसीके
प्यास
को
बुझा
देती
हैं?
कैसे
वोह
बारिश
की
दुवा
नहीं
करती
हैं?
कैसे
अपने
हर
ज़ख्मो
को
छुपाती
हैं?
कैसे
ज़िंदा
हो
अभी
तक,
अगर
पुछा
नदी
को,
जवाब
उसका
यही
होता
है.
नदी
को
समुन्दर
से
मिलते
देर
नहीं
लगती,
अस्तित्व
अपना
पल
भर
में
खो
लेती.
जब
तक
बहते
रहोगे,
तब
तक
शुद्धि
से
चहकते
रहोगे,
जब
तक
निर्मल
दिखोगे,
तब
तक
अपनी
कहानी
खुद
ही
लिखोगे,
जब
तक
संसार
में
रोष
भरा
रहेगा,
तब
तक
तुम्हारे
अंदर
नीरव
कोष
रहेगा.
कैसे
ये
असंभावना
को
संभव
हो
सकता
है,
अगर
पुछा
नदी
से,
तो
नदी
चमकेगी,
सूरज
के
किरणों
को
हीरों
में
बदलेगी,
हम
सबको
यही
कहेगी,
आशा
करो,
ख़ुशी
मिलेगी.
निराशा तो सभी करते हैं,
तुम बस बहते रहो,
और खुशियों के आसुओं को बहाते रहो!
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